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Feb 19, 2013

पतझड़ से वसंत... ( A welcome note to the Spring 2013)









पतझड़ से वसंत जैसे दो कदम
दो कदम के फासले बदलाव के
हो शुरू एक अंत जिसमें है छुपा आरंभ

पतझड़ से वसंत जैसे दो  कदम।

झड गयी सब पत्तियां और फूल सब मुरझा गए
रंग सारे उड़ गए एक मौन सा पसरा है क्यों
रास्तो ने ओढ़ ली पतझड़ की चादर हर तरफ
रूखी सूखी सी हवायें बह रहीं दिशा विहीन
मानो जैसे गा रहीं एक बेसुरी सरगम

पतझड़ से वसंत जैसे दो कदम।

अंत की ही आत्मा में आरंभ का बीज है
ना हो अँधेरा रात भर तो हर सुबह निर्जीव है
बुझती हुई सांसो से ही पुनर्जन्म की रीत  है
और ढूँढने जो चल पडा वो जान के हैरान है कि,
अनिश्चितता की बांसुरी में  ही सत्यता का  गीत है
यूँ ही चलता है, चलता ही रहेगा प्रकृति का नियम

पतझड़ से वसंत जैसे दो कदम।

दो कदम के फासले को दो कदम से पार कर
एक नए आरंभ का हर बार तू सत्कार कर
हर नयी कोपल को छू ले पत्तियों को प्यार कर 
चूम ले हर रंग को जो फिर से  वापस भर  गए
कहीं गाढ़े कहीं हल्के कहीं  कम और कहीं ज्यादा 
प्रकृति की कूची से मानो यहाँ वहां गिर गए
रास्ते शरमा  रहे फूलों की चादर ओढ़ के
झर रहे जो  मंद गति से अनसुने एक छंद पर
तितलियाँ उडती है जैसे हवाओ की ताल पर
पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ एक आरोह है
उसी लय से लौटता अवरोह का संगम

पतझड़ से वसंत जैसे दो कदम।



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1 comment:

Happy New Year